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एक आम परिवार के रिश्तों और उनके संघर्ष की कहानी है फिल्म ‘चंपारण मटन’, पहुंची ‘ऑस्कर’ के सेमीफाइनल तक

 

एक पति अपनी पत्नी की मांग पूरी करने के लिए आठ सौ रुपये किलो का मटन कैसे ख़रीदता है, बेरोज़गारी के दौर में एक गरीब परिवार के संघर्ष पर बनी है फिल्म ‘चंपारण मटन’. मुश्किल दौर में घर पर मटन पकाया जा रहा हो और अचानक कोई मेहमान आ जाए तो क्या होगा? क्या होगा जब मटन की खुशबू से पड़ोस के लोग भी इसका स्वाद चखने को पहुंच जाएं.


चंपारण मटन इन्हीं आर्थिक सामाजिक खींचतान के बीच बनी एक फ़िल्म है. यह फ़िल्म पुणे के फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट में निर्देशन की पढ़ाई कर रहे रंजन उमा कृष्ण कुमार ने बनाई है.


अपने अंतिम सेमेस्टर की पढ़ाई के प्रोजेक्ट के तौर पर उन्होंने 24 मिनट की यह फ़िल्म बिहार की वज्जिका बोली में बनाई है.  वज्जिका बिहार की राजधानी पटना के क़रीब बसे मुज़्फ़्फ़रपुर के आसपास की बोली है.



‘ऑस्कर’ सेमीफाइनल तक का सफर


इस फ़िल्म को कई लोगों ने सराहा है. यह फ़िल्म ऑस्कर के स्टूडेंट एकेडमी अवार्ड की फ़िल्म नैरेटिव कैटेगरी के सेमीफाइनल में पहुंच गई है. स्टूडेंट एकेडमी अवार्ड चार अलग-अलग कैटेगरी में दिया जाता है.


इस साल एफ़टीआईआई की कुल तीन फ़िल्मों को ऑस्कर के लिए भेजा गया था, लेकिन इसमें केवल ‘चंपारण मटन’ को ही शामिल किया गया.


स्टूडेंट एकेडमी अवार्ड फ़िल्म प्रशिक्षण संस्थानों से फ़िल्म बनाने की पढ़ाई कर रहे छात्रों की फ़िल्मों को दिया जाता है. यह अवार्ड साल 1972 से दिया जा रहा है.


इस कैटेगरी के लिए दुनियाभर की 2400 से ज़्यादा फ़िल्में पहुंचीं थी. चंपारण मटन सेमीफ़ाइनल तक टॉप 17 फ़िल्मों में पहुंच गई है. उम्मीद है कि इस अवार्ड की घोषणा अक्टूबर तक हो सकती है.


चंपारण मटन एक आम परिवार के रिश्तों और उनके संघर्ष की कहानी है. इस फ़िल्म की शूटिंग महाराष्ट्र के बारामती में हुई है. फ़िल्म की शूटिंग एक महीने तक हुई है.


रंजन कुमार बताते हैं कि वो इस फ़िल्म में बिहार की मिट्टी की खुशबू चाहते थे. यह फ़िल्म पांच स्टूडेंट्स की डिप्लोमा फ़िल्म है. ऐसी फ़िल्म के लिए एफ़टीआईआई की तरफ से ज़्यादा पैसे नहीं दिए जाते हैं, रंजन के मुताबिक़ फ़िल्म बनाने में उनके ऊपर एक लाख रुपये का कर्ज़ भी हो गया है.


‘व्यवस्था पर एक तीखा व्यंग्य है फ़िल्म’



चंपारण मटन बिहार के चंपारण में एक ख़ास तरीके से पकाए जाने वाले मटन के तौर पर मशहूर है. इसे मिट्टी की हांडी में धीमी आंच पर पकाया जाता है.


बिहार ही नहीं, भारत के कई इलाक़ों में इस मटन के कई होटल और रेस्तरां देखने को मिल जाते हैं. मटन के शौकीन इस फ़िल्म को एक मांसाहारी व्यंजन से जोड़ सकते हैं.


इस फ़िल्म के निर्देशक रंजन कुमार ख़ुद बिहार के हाजीपुर से ताल्लुक रखते हैं. अपनी फ़िल्म से उन्होंने देश की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर एक तीखा व्यंग्य किया है.


रंजन कुमार बताते हैं, “अगर एक शब्द में कहूं तो इस फ़िल्म का थीम बेरोज़गारी है. यह कोविड के बाद के दौर की कहानी है, जिसमें लॉकडाउन की वजह से किसी की नौकरी चली गई है.”


रंजन के मुताबिक़ फ़िल्म के नायक ने लव मैरिज की है. उसकी पत्नी चंपारण से है. वह गर्भवती है और मटन खाने की इच्छा जताती है.


उन्हें इस फ़िल्म की प्रेरणा एक सच्ची घटना से मिली है. एक बार वो अचानक पटना के पास दानापुर में अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंच गए, जहां मटन पक रहा था.


ठीक उसी समय वहां एक जानने वाले डॉक्टर पहुंच गए और फिर मटन की खुशबू ने पड़ोसियों को भी न्यौता दे दिया. ऐसी स्थिति में किसी परिवार पर क्या गुज़र सकती है, यह फ़िल्म उसी को बयां करती है.


इस फ़िल्म के मुख्य कलाकारों में चंदन रॉय और फ़लक ख़ान हैं. दरअसल इस फ़िल्म में बिहार के क़रीब 10 कलाकारों शामिल किया गया है, ताकि फ़िल्म में बिहार की सच्ची झलक मिल सके.


मुख्य कलाकार ने नहीं लिए पैसे


चंदन रॉय ख़ुद बिहार के हाजीपुर के हैं और मशहूर वेब सिरीज़ ‘पंचायत’ में उनके अभिनय को काफ़ी सराहा गया है. चंदन ने ‘पंचायत’ में सचिव के सहायक विकास की भूमिका निभाई है.


चंदन के मुताबिक़ उन्होंने केवल एक स्टूडेंट के तौर पर रंजन को सपोर्ट करने के लिए हां कहा था. इस फ़िल्म की कहानी बहुत अच्छी थी लेकिन कभी नहीं सोचा था ‘चंपारण मटन’ ऑस्कर’ में इतनी दूर तक जाएगी.


चंपारण मटन की मुख्य नायिका फ़लक ख़ान बताती हैं, “रंजन सर इंजीनियरिंग में हमारे सीनियर थे. मेरे पास उनका फ़ोन आया तो एक कलाकार के तौर पर मुझे इसकी कहानी बहुत अच्छी लगी. इसका नाम भी बहुत ख़ास और आकर्षक है. इसकी कहानी में मुझे परफ़ॉर्म करने को बहुत कुछ दिखा रहा है /




एक आम परिवार के रिश्तों और उनके संघर्ष की कहानी है फिल्म ‘चंपारण मटन’, पहुंची ‘ऑस्कर’ के सेमीफाइनल तक





 


 



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